Thursday, February 6, 2025
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पत्रकार डॉ. नीरज गजेंद्र के नज़रिए से देखिए आराम तलब समाज और ब्रेड एंड सर्कस की सरकार का हश्र

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डॉ. नीरज गजेंद्र एक समय की बात पर चर्चा करते हुए बताते हैं कि एक समृद्ध नगर में एक राजा था। उसने राज्य में मुफ्त भोजन, वस्त्र और घर देने की घोषणा की। जनता ने खूब आनंद लिया। मेहनत बंद हो गई। खेती-किसानी छूट गई। व्यापार चौपट हो गया। लोग सिर्फ सरकारी मदद की राह देखने लगे। राजा ने एक प्रयोग किया। उन्होंने रोजाना मुफ्त में भोजन देना शुरू किया। कुछ दिन बाद, जब उन्होंने यह बंद कर दिया। जनता, जो मुफ्त के लालच में अपने हुनर और श्रम को भुला चुकी थी। भूख और गरीबी में डूब गई। पूरा राज्य असंतोष में घिर गया। लोग गिड़गिड़ाने लगे, क्रोधित होने लगे। राजा ने कहा, जो मेहनत से भागता है, वह पराधीनता की जंजीरों में बंध जाता है।

इतिहास में भी ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं, जब मुफ्तखोरी का लालच समाज के पतन का कारण बना। रोमन साम्राज्य के पतन का एक प्रमुख कारण मुफ्त अनाज और मनोरंजन की संस्कृति थी। ब्रेड एंड सर्कस नीति के तहत जनता को मुफ्त राशन और मनोरंजन के खेल दिखाए गए। जिससे वे शासन की नीतियों पर सवाल उठाने के बजाय आलसी और निर्भर बन गए। जब बाहरी आक्रमण हुए। तो यह आरामतलब समाज अपने साम्राज्य को बचाने में असमर्थ रहा। इसी तरह, सोवियत संघ के पतन के पीछे भी एक बड़ा कारण यही था। वहां की सरकार ने वर्षों तक सब्सिडी और मुफ्त सेवाओं का जाल फैलाया, जिससे लोगों की उद्यमशीलता घटने लगी। अर्थव्यवस्था ढहने लगी और अंततः सोवियत संघ विघटित हो गया।

यह दर्शाता है कि जब कोई व्यवस्था अत्यधिक केंद्रीकृत हो जाती है और जनता की आवश्यकताओं को पूरा करने में विफल रहती है, तो उसका पतन अवश्यंभावी हो जाता है। महाभारत में कौरवों की सभा में दुर्योधन ने अपने सहयोगियों को बिना किसी उत्तरदायित्व के राजसत्ता के सुख-साधन उपलब्ध कराए। परिणामस्वरूप, जब महायुद्ध का समय आया, तो उनके लिए निष्ठावान योद्धा तैयार नहीं थे। वहीं, पांडवों ने अपने निर्वासन के दौरान श्रम, तप और संघर्ष को अपनाया, जिससे वे मजबूत होकर उभरे और धर्मयुद्ध में विजयी हुए।

आज वही कहानी फिर दोहराई जा रही है। चुनावी मौसम आया है। वादों की झड़ी लग गई। सियासी घरानों ने अपने घोषणा पत्र जारी कर दिए। कोई कह रहा है सेनेटरी नेपकिन मुफ्त देंगे। कोई कह रहा है वाई-फाई फ्री कर देंगे। कोई मकान का वादा कर रहा है। तो कोई टैक्स माफ करने की बात कर रहा है। कुल मिलाकर सबकुछ मुफ्त। जनता बस वोट डालने के लिए रह गई है। समस्या यह नहीं है कि कुछ चीजें मुफ्त दी जा रही हैं। समस्या यह है कि वे वही चीजें मुफ्त कर रहे हैं, जो व्यक्ति खुद खरीद सकता है। कोई यह नहीं कहता कि शिक्षा और स्वास्थ्य को मुफ्त कर देंगे। कोई यह नहीं कहता कि रोजगार के अवसर बढ़ाएंगे। मुफ्तखोरी की राजनीति लोगों को कमजोर और लाचार बनाती है। सोचने-समझने की शक्ति छीन लेती है।

धान का कटोरा कहलाने वाले छत्तीसगढ़ में मुफ्त चावल बंट रहा है। यह वही राज्य है, जहां द्वार पर आए याचक को चावल देकर विदा करने की परंपरा है। लेकिन अब सरकारें खुद जनता को याचक बना रही है। महिलाएं जो बचत और परिश्रम का प्रतीक थीं। मेहनत करने की प्रेरणा खत्म करने, उन्हें बिना काम के पैसा दिया जा रहा है। हर कोई चाहता है कि शिक्षा और स्वास्थ्य मुफ्त हो, लेकिन यह सबसे महंगा होता जा रहा है। निजी स्कूलों और अस्पतालों की मनमानी चरम पर है। गरीब आदमी अपने बच्चे को अच्छी पढ़ाई नहीं दिला सकता। इलाज नहीं करा सकता, लेकिन सरकार की प्राथमिकता में यह नहीं है। क्योंकि इससे वोट बैंक मजबूत नहीं होता। इससे जनता आत्मनिर्भर होती है, और आत्मनिर्भर जनता किसी नेता के आगे हाथ नहीं फैलाती।

अब चुनाव में मतदाता नहीं, ग्राहक तैयार किए जा रहे हैं। मुफ्त चीजों का लॉलीपॉप देकर वोट खरीदे जा रहे हैं। यह राजनीतिक दलों की सबसे बड़ी चालाकी है। जनता को धीरे-धीरे यह समझना होगा कि वे कोई उपकार नहीं कर रहे, बल्कि एक बड़े जाल में फंसा रहे हैं। अगर मुफ्त में चीजें देने से देश आगे बढ़ता, तो दुनिया में कोई भी देश गरीब नहीं होता। लेकिन हकीकत यही है कि जो देश आत्मनिर्भर बनने पर जोर देते हैं, वे ही तरक्की करते हैं। मुफ्त चीजें देकर जनता को निकम्मा बनाने की यह साजिश कहीं न कहीं देश को कमजोर कर रही है।

अगर यही चलता रहा, तो आने वाले समय में जनता हर चीज के लिए सरकार की तरफ देखने लगेगी। शिक्षा और स्वास्थ्य के नाम पर लाखों का खर्च होगा, लेकिन जनता मोबाइल डेटा और टीवी फ्री पाने की उम्मीद में वोट डालती रहेगी। मेहनत का मूल्य गिरता जाएगा। लोगों में परिश्रम की भावना खत्म होती जाएगी। यही समय है, जब जनता को सोचना होगा कि क्या वे सिर्फ मुफ्तखोरी के लिए वोट डाल रहे हैं। क्या उन्हें अपने बच्चों का भविष्य सुरक्षित नहीं चाहिए। क्या वे अपने दम पर आगे बढ़ना नहीं चाहते। राजनीतिक दल वही वादे करते हैं, जो उन्हें सत्ता तक पहुंचा सकें। अब यह जनता को तय करना है कि वह क्या चाहती है— मुफ्त का धोखा या मेहनत की असली कमाई।

लेखक, वरिष्ठ पत्रकार एवं सामाजिक-राजनीतिक रणनीतियों के विश्लेषक हैं.

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